वात अर्थात वायु। आयुर्वेद में वायु को गतिशील बताया गया है इसलिए यह एक प्रकार की ऊर्जा भी है। वायु की प्रकृति है कि वह सारे शरीर को संचालित करती है। यह ज्ञानेंद्रिय से मस्तिष्क तक की यात्रा को पूरा करती है। यही वायु किसी भी विचार को चेतना में रूपांतरित करने में सहायक होती है और वर्तमान अनुभवों को स्मृतियों में परिवर्तित करने की शक्ति भी वायु में ही होती है। अर्थात् वायु प्राकृतिक रूप से हल्की और शुष्क होती है और यदि चह अनियमित और दुषित हो जाये तो वायु संबंधी रोग पैदा होते हैं। आयुर्वेद में वायु पाँच प्रकार की बताई गई है।
1. प्राणवायु :- इसका संबंध श्वसन और छाती से रहता है।
2. व्यान वायु :- का संबंध हृदय की कार्यप्रणाली से रहता है।
3. उदान वायु:- का संबंध भोजन नली से रहता है इसलिये यह भोजन नली की कार्यप्रणाली को संचालित करती है।
4. समान वायु :- इसका संबंध आंतों से है इसलिये इसका संबंध भोजन पचाने और मल बनाने की कार्य प्रणाली के संचालन से है।
5.आपान वायु:- यह गुदा और मूत्र प्रणाली से संबंधित है। इसलिये यह मल त्याग, शुक्राणु निकालने तथा प्रसव को संचालित करने का
कार्य करती है।
वायु ना घटती है ना बढ़ती है। बल्कि असंतुलित होती है इसलिये वायु से संबंधित रोगों की चिकित्सा में इसे सिर्फ संतुलित करने की ही कोशिश की जाती है।
वायु से संबंधित रोग कई प्रकार के हैं जैसे पेट में दर्द, घुटनों में दर्द, जोड़ों में दर्द, लकवा, जीभ का अकड़ जाना, सिर में रूसी हो जाना, पैरों में बिवाइयाँ फटना, नींद न आना, पीठ में दर्द आदि। यदि हमें इसकी सही पहचान हो जाये तो हम अच्छी तरह से घरेलू चिकित्सा कर सकते हैं।
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