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वात पित्त कफ की समानता की आवश्यकता -स्वचिकित्सा

 यदि शरीर में वात आदि दोषों की प्रधानता होती है तो उसका जठराग्नि पर प्रभाव पड़ता है। यदि वायु विषमगति की  हो जाये तो. पाचन क्रिया कमी नियमित और कभी अनियमित हो जाती है। 

पित्त अपने तीक्ष्ण गुणों के कारण अग्नि को तीव कर खाये हुये आहार को समय से पहले ही पचा देता है। कफ अपने मृदु गुण के कारण अग्नि को मृदु बनाकर उचित मात्रा में खाये हुये आहार का सम्यक पाचन नियमित समय में नहीं कर पाता है। 
यदि वात, पित्त और कफ तीनों समान मात्रा में रहे तो उचित मात्रा में खाये हुये आहार का निश्चित समय से पाचन हो जाता है।

वात की वृद्धि से मलाशय पर प्रभाव पड़ता है। मलद्वार में क्रूरता बढ़ती है। इससे मलत्याग देरी से होता है 
पित्त की वृद्धि से मलाशय मृदु होता है। 
कफ की वृद्धि से यही मलाशय मध्ये होता है। 

यदि वात, पित्त कफ समान हैं, तो मलाशय एवं मलद्वार मध्य होता है।  यदि कोई व्यक्ति वात प्रकृति का है या उसको पेट में वायु का प्रभाव बढ़ गया है तो उसका कोष्ठ क्रूर होगा अर्थात उस व्यक्ति को मलत्याग देरी से होगा। 

इसी को कोष्ठवृद्धता (कब्ज़ी )भी कहते है। इसको ठीक करने के लिये औषधि की जरूरत होती है। ऐसी औषधि जो वात को कम करे और पित्त को बढ़ाये। जैसे ही पित्त बढ़ता है, वैसे ही कोष्ठ मृदु हो जाता है। कोष्ठ मृदु हो जाये तो मलत्याग आसान हो जाता है।  मलत्याग करना सबसे अधिक आसान-तभी होता है, जब वात, पित्त, कफ समान हों या सम हों। मलत्याग आसान करने के लिये दूध, त्रिफला चूर्ण बहुत अच्छी औषधियां हैं।


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